सौम्यता की प्रतिमूर्ति एवं सहज वैदुष्य: वीरभद्र कार्कीढोली
सौम्यता की प्रतिमूर्ति एवं सहज वैदुष्य: वीरभद्र कार्कीढोली
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम्।।
अर्थात यशः काय विद्वान्, साहित्यकार और विशिष्ट वैदुष्य एवं सौम्यता से संपूरित व्यक्तित्व के प्रतिमान वीरभद्र कार्कीढोली, एक ऐसे तपोनिष्ठ व्यक्तित्व की प्रतिमूर्ति हैं जिनमें कवि सदृश भावुक मन की स्निग्धता और सौहार्दपूर्ण आद्रता के साथ-साथ स्वाभिमान और आत्मसम्मान की प्रगल्भता विद्यमान है। आपकी उदात्त ज्ञानपरक परिचर्चा से सहयोगी और साथी हमेशा चकित तथा प्रमुदित होते होंगे। यही कारण है कि आप सभी के आत्मीय बन जाते हैं।
वीरभद्र कार्कीढोली नेपाली साहित्य जगत के प्रतिष्ठित कवि, कहानीकार, अनुवादक और साहित्य-साधक हैं। आज वह राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हैं। भाषा के मर्मज्ञ विद्वान, कुशल अनुवादक, सुकवि और सफल संपादक तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं। वीरभद्र जी से मेरा परिचय सन 2018 में प्रो. सुरेश सिंहल द्वारा संपादित ‘जीवनबोध में कवि वीरभद्र कार्कीढोली’ पुस्तक के प्रकाशन के समय से है। यह पुस्तक प्रो. सिंहल जी ने मुझे समीक्षार्थ भेंट की थी, जिसकी मैंने सारगर्भित एवं उपयोगी समीक्षा लिखी थी। यह समीक्षा हरियाणा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, पंचकूला द्वारा प्रकाशन अनुदान से प्रकाशित सद्य: आलोच्य पुस्तक ‘साहित्य सृजन और साहित्यालोचन’ के अतिरिक्त बाद में कार्कीढोली द्वारा संपादित-प्रकाशित, असम से नेपाली भाषा की पत्रिका ‘प्रक्रिया’ में अनुवादक प्रेमनाथ मनेन जी द्वारा नेपाली में अनुवादित होकर भी छपी थी। पहले पहल तो मैं कार्कीढोली के नाम से ही परिचित था। लेकिन उनके कहानी संग्रह ‘मोड़ से मोड़ तक’ को पढ़कर, इतना प्रभावित हुआ कि उनसे फोन पर बात किए बगैर न रह सका। उस दिन के बाद तो साहित्य को लेकर निरंतर हमारी फोन पर चर्चा-परिचर्चाएँ होती रहती हैं। अत्यंत संक्षिप्त अवधि के परिचय में ही मैंने अनुभव किया है कि उनके व्यक्तित्व में सरलता और सहजता के दुर्लभ संयोग हैं। आपकी स्नेह दृष्टि, स्निग्ध वाणी और व्यवहार की विशिष्टता को मैं दूर बैठे भी कह सकता हूँ कि आप स्वभाव से विनम्र, बुद्धि से विवेकशील व बहुत मिलनसार हैं। आप संवेदनशील हृदय, अत्यंत शालीन, विभूषित जीवन और कारुणिक संपदा के धनी व्यक्ति हैं। आप भारतीय संस्कृति, भाषा, कला, विद्या, दर्शन, संस्कार और साहित्य के स्थापित स्वरूप हैं।
बहुत समय से मैं आप पर एक आलेख लिखने का मन बनाए हुए था, लेकिन अपने साहित्य-सृजन की बना-उधेड़ में समय नहीं निकाल पा रहा था। कार्कीढोली जी के अनुरोध पर कई बार जल्द ही कुछ नया लिख भेजने का वादा भी कर चुका था, जो कभी पूरा न कर सका। कहते हैं हर काम का एक निश्चित समय होता है, वह शायद आज की रात है। आज दिन में ही उनका फोन आया, बहुत सारी बातें हुईं। उन्होंने बताया कि काठमांडू, नेपाल और गुवाहटी तथा जापान के किसी विश्वविद्यालय में मेरे साहित्य पर शोध कार्य चल रहे हैं। शोधर्थियों के लिए सामग्री जुटाकर देना और यथासंभव सहयोग करना, मैं अपना दायित्व व कर्तव्य मानता हूँ। इतना कुछ सुनने के बाद बिना देरी किए ही मैंने उनके व्यक्तित्व-कृतित्व पर लिखना प्रारंभ कर दिया। मेरे लिए किसी को जानने और समझने के लिए उनसे मिलना आवश्यक नहीं है। मेरे साहित्यिक मित्रों की सूची में ऐसे बहुत से मित्र हैं जिनसे मैं आज तक प्रत्यक्ष-परोक्ष नहीं मिला हूँ, किन्तु उनके आत्मीय व्यवहार और व्यक्तित्व-कृतित्व से बखूबी परिचित हूँ। जब कभी उनके लिए लिखने की बात होती है, तो बड़ी आसानी और सहजता से लिख भेजता हूँ। क्योंकि उनको जानने-समझने के लिए मेरे पास उनका साहित्य और फोन पर हुई बातें ही बहुत होती हैं। चूंकि एक साहित्यकार के व्यक्तित्व को लिखने से पूर्व अत्यावश्यक होता है कि उनके साहित्य को गम्भीरता से पढ़ा जाए, जिसमें उनके जीवनानुभव, परिवेश और वातावरण का पता चल सके। साथ ही साहित्य व्यक्ति के समग्र व्यक्तित्व की झलक दे देता है।
आपकी रचनाओं में आपके प्रातिभ-प्रकर्ष का संस्पर्श और आकर्षण है। सामाजिक एवं राष्ट्रीय स्तर की विसंगतियों के प्रति उद्विग्नता है तथा धैर्य व निष्ठा के साथ लक्ष्य के प्रति आह्वान का मुखर स्वर है जो आपकी साहित्यिक जिजीविषा व उसके प्रति लगन, निष्ठा और ईमानदारी की उदात्तता को उद्भासित करता है। आपकी रचनाएं जीवन की सहज अनुभूति के साथ उसके विविध आयामों को आलोकित करती हुई, मूल्य-चेतना से मुखातिब करती हैं।
वीरभद्र कार्कीढोली प्रमुखतः नेपाली भाषा में कविताएँ और कहानियाँ लिखते हैं। वे मूलतः नेपाली के कवि हैं। वह कवि ही नहीं, बल्कि सुकवि हैं। नेपाली के अतिरिक्त वे हिंदी और अंग्रेजी में भी लेखन करते हैं। उनकी कविताओं और कहानियों का हिंदी के अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। आपकी नेपाली में प्रकाशित प्रमुख रचनाओं में- निर्माण यो मोड़सम्मको, आभास, कविता पर्खिएर आधारातसम्म, एक मुट्टी कविता, शब्द र मन, अक्षरहरूको यात्रामा, समाधि अक्षरहरू, ध्वनि-अन्तर्ध्वनि, शब्दमा मनका आवेगहरू, समय र रागहरू, सम्झिएर उनीहरूलाई हैं। हिंदी में अनूदित कृतियाँ- तुमने जीवन तो दिया..., शब्दों का कोहरा, समाधिस्थ अक्षर, मोड़ से मोड़ तक। असमिया में- वीरभद्र कार्कीढोलीर निर्वाचित कविता। बांग्ला में- नेपाली कवि वीरभद्र कार्कीढोलीर प्रतिनिधि कविता। अंग्रेजी में- Expression of words (Collection of Short Stories), A journey of the letters तथा संपादन-कर्म- प्रक्रिया : सामयिक साहित्यिक पत्रिका, स्थापना : समीक्षात्मक पुस्तक, हाम्रो पिंढी : सामाजिक-राजनैतिक पत्रिका तथा प्रथा : साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़े हैं। आपके साहित्य पर बहुत-सी पुस्तकों का संपादन कार्य भी संपन्न हो चुका है, जिनमें संपादक प्रो. सुरेश सिंहल द्वारा संपादित पुस्तक ‘जीवनबोध में समाधिस्थ कवि वीरभद्र कार्कीढोली’, ‘मोड़ से मोड़ तक’, डिगबोई असम निवासी खड़कराज गिरी द्वारा हिंदी अनूदित कृति ‘समाधिस्थ अक्षर’ व कुछ अन्य हैं।
वीरभद्र कार्कीढोली न केवल श्रेष्ठ साहित्यकार एवं साहित्य-साधक हैं, बल्कि अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के संपादक, अनुवाद-चिंतक, स्वतंत्र पत्रकार के रूप में भी एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में जाने-पहचाने जाते हैं। सामाजिक सरोकार, सांस्कृतिक उत्थान एवं संरक्षण और मानवीय संवेदना आपके साहित्यिक और पत्रकारिता के क्षेत्र में चिंतन-मनन का मूल स्वर हैं।
डॉ. सुरेश सिंहल आपके कवि-रूप को चरितार्थ करते हुए लिखते हैं, “वीरभद्र की काव्यात्मक भाव तरंगें भौतिक विज्ञान के ऑसलेशन सिद्धांत के अनुसार कागज पर इधर-उधर घूम कर उतरी हैं, इसलिए प्रत्येक कविता विशिष्ट विषय पर केंद्रित होते हुए भी प्रतीकात्मक शब्दों के माध्यम से 'कैलियोडोसकोपिक' बिंब चुनती हुई नियोजित अर्थ-संप्रेषण तक पहुँची है। रवायती गजल के शायर तथा प्रेम व श्रृंगार गीतों के गीतकार की तरह छंद-मुक्त कविता का कवि न तो 'नॉस्टलजिक' होता है और न 'यूटोपियन'। यथार्थवाद के प्रति उसकी प्रतिवद्धता उसे बुद्धिवादी और विचारशील बना देती है। अतः कविता में अभिव्यक्त यथार्थ पर कहीं सात्र और काफ्का के अस्तित्ववाद की झिलमिलाहट नजर आती है तो कहीं मार्क्स के साम्यवाद की। वीरभद्र की कविताओं में इन दोनों दर्शनों की छाया तो धूमिल है किंतु चार्वाकीय नास्तिकवाद अथवा अनीश्वरवाद का प्रतिबिंव स्थूल और स्पष्ट है।”
वीरभद्र कार्कीढोली की कविताएँ चित्रमयी लाक्षणिक भाषा और रूपकों से संपन्न हैं तथा प्रस्तुत प्रतीकों का आश्रय लिए हुए हैं। कविताओं में विषम परिस्थितियों की जकड़ में जीवन जीने की ज़िद और उन्माद भरा है। सामाजिक, राजनीतिक कुरूपता है तो आर्थिक व सांस्कृतिक विद्रूपता और समस्याओं के समाधान भी सुझाते हैं।
‘तुमने जीवन तो दिया, लेकिन…’ काव्य संग्रह की समीक्षा ‘मुट्ठी भर कविता की आग’ शीर्षक में वेदप्रकाश भारद्वाज वर्तमान कविता पर अपने विचार कुछ इस तरह से रखते हैं, जो बहुत प्रासंगिक हैं- “आज भले ही भाषा की बंदूक से कविता गोली की तरह नहीं दागी जा सकती या दागी नहीं जा रही है, पर आज भी शायद कविता ही है जो अपने तमाम भटकाव, अलगाव और भ्रमों के बावजूद मानवीय चेतना, संघर्ष और राग-विराग का सर्वाधिक सशक्त अभिव्यक्ति का माध्यम है। आज भी कविता में एक आग है, भले ही वह कम कविताओं में हो या कविताओं में कम मात्रा में हो, परंतु उसका होना मनुष्य के होने की निशानी है। यह मुट्ठी भर कविता की आग है जो बृहत्तर संभावनाओं को जीवित रखे हुए है।” उन मुट्ठीभर कविताओं में वीरभद्र कार्की ढोली की कविताएँ अग्र-गणित हैं।
वीरभद्र की कविताओं के दार्शनिक पक्ष को उजागर करते प्रो. राम आह्लाद चौधरी लिखते हैं, “हर विधा अभिव्यक्ति को कई तरह से आगे बढ़ाती है। अभिव्यक्ति, अनुभव की पहचान है और यही पहचान किसी कविता को प्राणशक्ति को बचाए रखती है। इस पहचान के बिना कविता बेजान है और इसी पहचान के कारण कोई कविता बेनजीर है। इस बेजान और बेनजीर तटों के बीच से कविता की धारा स्वतः स्फूर्त ढंग से प्रवाहवान रहती है, किंतु थोड़ी देर के लिए एक तट को बेजान मान भी लें तो काव्य के किसी एक पक्ष की उपेक्षा नहीं होती, बल्कि काव्य की धारा अपनी आंतरिक शक्तियों के जरिए इस बेजान तट को प्राणस्फूर्त कर देती है।” कवि का सुखात्मक क्षण, कविता का दार्शनिक पक्ष होता है, जो कवि और कविता को जीवन प्रदान करता है। इस सुखात्मक क्षण के बिना कविता अपना कदम नहीं उठा सकती अर्थात कविता सृजन संभव नहीं। अतः बिंब के बिना कविता सृजन और शब्द के बिना कविता, कविता नहीं हो पाती। इस प्रकार कवि कार्की ढोली कविता समय को चुनौती देते हुए उसे क्षितिज पर पहुंचाने की घोषणा करती है।
अतः वीरभद्र कार्कीढोली का कवि-रूप अति गम्भीर एवं व्यापक है। वास्तव में, दहलीज से उठा, अपने में ही जीता हिमालय को जब से जाना, उसे आत्मा की ऊंचाई से देखा तो हिमालय भी रो पड़ा, क्या ईश्वर! कभी नहीं मरता, आत्मा स्वीकारती ही नहीं, इसे आत्मीयता और संवेदना के भावों को पिरोते समझा, वह दिन दूर नहीं जब आग लगाने वाले को घनी बरसात में फिक्र होगी, घटित घटनाओं के भावाल्लेख, सीने पर हाथ रखकर, बस! इतना ही पूछना चाहता है- लहू और माट्टी की बातें, शहर की खबर, वक्त की वजह से वक्त ही अपना न हो सका, क्यों? इस वक्त तुम्हारे अंदर अभिव्यक्ति की हत्या नहीं हो सकती, इन हथेलियों में भी सपने हैं, अपना ही ईश्वर! है, आखिर जिंदगी है क्या? अब किस आँधी का इंतजार करूँ, कोई भी साँप, केंचुआ नहीं जन्मा इस वक्त फर्क सिर्फ इतना-सा है कि बार-बार याद किया, कहती थी सह लूँगी बूँद-बूँद पानी बह न पाने की पीड़ा, बस! बंद नहीं करोगे, भूलकर भी आँखें, कुछ ऐसे सोच रहा होता है कवि, यह आदमी, आदमी नहीं, कवि नहीं, सुकवि-रूपा दूब उगा मैदान हैं।
साहित्य की अनुवाद विधा एक सशक्त एवं कठिन विधा है, जिसमें अनुवादक को दो संस्कृतियों के बीच सामंजस्य बैठाना पड़ता है, साथ ही स्वयं को भी दोहरी भूमिका में रखना पड़ता है। अनुवाद ‘सांस्कृतिक-सेतु’ रूप में रचना को ‘विश्व-सापेक्ष’ बनाने की प्रयोजनीयता है। आज अनुवाद वैश्विक एकता और अखंडता, परस्पर अदन-प्रदान ट्ठा ‘विश्व कुटुंबकम्’ की भारतीय अवधारणा को साकार करने की दृष्टि से समरसता स्थापित करने का ‘वैश्विक सांस्कृतिक-सेतु’ बना हुआ है। साहित्यिक अनुवाद (कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, आलोचना आदि) विविध विधाओं का एक भाषा (स्रोत भाषा) से दूसरी भाषा (लक्ष्य भाषा) में अनुवाद किया जाता है। सृजनात्मक सामग्री का अनुवाद जहाँ पाठक को आनंदित करता है, वहीं यह उसे रसात्मक अनुभूति भी प्रदान करता है। अनुवाद में मूल रचना के सम्पूर्ण कलेवर को आत्मसात करते हुए, उसे सृजनात्मक ढंग से संप्रेषित करना होता है। फिर, गद्य और पद्य के अनुवाद में एक मूलभूत अंतर होता है, जहाँ गद्य की भाषा प्रायः अभिधामूलक होती है, वहीं पद्य की भाषा लाक्षणिक एवं व्यंजना प्रधान होती है। निःसंदेह यह एक श्रमसाध्य एवं जटिल कार्य है। नेपाली कविता का हिंदी में अनुवाद ओर भी दुष्कर है। नेपाली में ऐसे-ऐसे शब्द, मुहावरे और लोकोक्तियाँ हैं जिनका हिंदी में सही-सही अनुवाद नहीं हो सकता। नेपाली-हिंदी अनुवादक खड़कराज गिरी के सामने ये समस्याएँ उस समय आई जब वे कार्कीढोली के नेपाली कविता संग्रह ‘समाधि अक्षरहरू’ का हिंदी अनुवाद कर रहे थे। उनका यह कहना, “नेपाली भाषा में भी ऐसे-ऐसे शब्द हैं, ऐसी लोकोक्तियाँ हैं जिनका सही-सही अनुवाद नहीं हो सकता। गाँव में व्यवहृत कई शब्द साहित्य में आए ही नहीं हैं। बस, बोलचाल की भाषा (Colloquial) बनकर रह गए हैं। नेपाली भाषा में एक शब्द है ‘मलामी’ जिसका अर्थ होता है 'शव-यात्री', हिंदी में ऐसा एक शब्द मुझे नहीं मिला। इसी तरह ‘मझेरी’ गाँव में घर के अंदर का वह हिस्सा जहाँ खाना, बैठना, खाना पकाना, सोना आदि का साथ होता है।” वस्तुतः जिस तरह आज गाँवों में बूढ़ी आशाएं दम तोड़ रही हैं, ठीक वैसे ही ये आंचलिक शब्द भी लुप्तप्राय: होते जा रहे हैं, जिनका स्थान विभिन्न भाषाओं के नए-नए शब्द लेते जा रहे हैं। फिर भी अनुवादक खड़कराज गिरी का प्रयास बहुत सुंदर बन उभरा है, चूंकि उन्हें अनुवाद के गुण-दोषों और नेपाली संस्कृति की अच्छी परख है। अनुवादक खड़कराज के शब्दों में, “कविताओं को पढ़ने से ही पता चलता है कि कवि वीरभद्र जी पहाड़ों की मिट्टी से जुडे कवि हैं। पहाडों की वादियों, पेड़ो, नदी-नालों, ऊँची-नीची ढलानों, लाल गुराँस और प्राकृतिक खुशबू बिखेरते अन्यान्य जड़-चेतन आदि भी उनकी कविताओं के किरदार हैं। कवि के हृदय को उनकी भावनाओं को, उनके दर्द को उनकी हँसी को, उनकी हर हरकत को मैं सिर्फ और सिर्फ भावना के तर्ज पर ही अनुवाद करना नहीं चाहता था, हिंदी साहित्य को उन्हीं के शब्द-सज्जित 'समाधिस्थ अक्षर' देना चाहता था, सो मैंने किया भी है। इसमें मेरा एक ही उद्देश्य था/है- कवि अपने मूल स्वरूप में ही हिंदी के प्रबुद्ध पाठकों में परिचित हों। कारण भावानुवाद से कवि के वाक्य-गठन का स्वरूप पता नहीं चल पाता। अनुवादक हाबी रहता है उसमें। मैंने कवि के लेखन-अंदाज, शैली, भाव-विधान को यथासंभव मूल जैसा ही रखा है।” उनके समर्थ एवं कुशल अनुवादक होने का परिचायक है।
कवि वीरभद्र कार्कीढोली आशावादी सोच के विचारवान व्यक्ति हैं, जिनमें जीवन को जीने की भरपूर ललक और इच्छाशक्ति है। उनका मानना है कि वास्तविक जीवनानुभूतियों को रुपयों से खरीदा नहीं जा सकता, वे अमूल्य हैं। कविमना कार्कीढोली के शब्दों में जीवन की सुंदर परिभाषा दी गई है, “मैं अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति में हमेशा ईमानदार रहता आया हूँ। कवियों को ईमानदार होना चाहिए। मैं नहीं सोचता कि मेरा जन्म केवल मरने के लिए हुआ है। मैंने काफी कुछ होने, करने और करने के पश्चात मरने के लिए जन्म लिया है, ऐसा मैं सोचता हूँ। मुझे जीवन भोगना पसन्द है। जीवन अति कष्टदायक है। वैसे उतना कष्टदायक न भी हो, फिर भी मैं इसी तरह ही सोचता हूँ। मैंने जीवन में जितने कष्ट, पीड़ा और आपदाएँ झेलीं हैं और आज जिस पड़ाव पर आ पहुँचा हूँ, उस पर मुझे कोई शिकवा-शिकायत नहीं है। मैं अपने अतीत को अत्यन्त महत्वपूर्ण मानता हूँ। इन वास्तविक अनुभूतियों को रुपयों से खरीदा नहीं जा सकता। ये अमूल्य हैं, अविस्मरणीय हैं जिन्हें दूसरी बार जी सकना संभव नहीं।”
कार्कीढोली के लिए जिंदगी और कविता दो अलग चीजें नहीं हैं। वह बदलाव के कवि हैं जो हर समय कविता और जिंदगी में कुछ नया रोपण कर, उगाना चाहते हैं, खिलाना चाहते हैं। उनकी कविताऍं समस्याओं के उत्तर ही नहीं, बल्कि सदियों से अनुत्तरित प्रश्नों की प्रतिध्वनियाँ हैं। कविताऍं जीवन का भोगा यथार्थ, दर्शन से भरपूर और जीवनानुभव का वृहत्तर संसार रचती हैं।
कवि वीरभद्र में काव्य प्रतिभा के विलक्षण गुण तो विद्यमान हैं ही गद्य लेखन में भी पारंगत एवं सशक्त हस्ताक्षर के रूप में सामने आते हैं। कहानीकार वीरभद्र जी जीनव में जीत को ही सफलता नहीं मानते, बल्कि पराजय को भी जीतने के लिए एक विशेष शक्ति मानते हैं। जीवन को लेकर उनका कहना है कि कोई कुछ भी कहे लेकिन जिंदगी के उस पर कोई जिंदगी नहीं है। इसलिए जिंदगी को छोड़कर कोई कहानी नहीं है। कहानी क्या है, को परिभाषित करते कहानीकार कार्कीढोली जी लिखते हैं, “सोचता हूँ, अनेक-अनेक घटनाएँ हैं जीवन-लीला की। लेकिन सभी घटनाएँ जीवन की घटनाएँ नहीं हैं, होती भी नहीं हैं। बहुत कम घटनाएँ ज़िंदा रहती हैं जो वास्तव में घटनाएँ लगती हैं। अनेक कथाएँ हैं जीवन में, जीवन की वे सभी कथाएँ नहीं बनती, विशेष कहानियाँ नहीं बनती। केवल कहानियाँ होती हैं, बनती हैं और कहानियों के रूप-स्वरूप में जिंदा रहती हैं।” वीरभद्र कार्कीढोली जी निरंतर साहित्य सृजन में रत हैं। अभी लिखने की कशिश उनकी बाकी है। वह कहते हैं, “जो लिखा नहीं गया वह लिखा जाना है अब। वे कहानियाँ भी लिखी जानी हैं जो अभी तक नहीं लिखी गई हैं। किसी ऐसे सफर में प्यास थोड़ी-सी, लिखना बाकी है।”
एक संवेदनशील व्यक्ति सदैव प्यासा ही जीवित रहता है, अजर-अमर रहता है। नेपाली में कार्की ढोली जी के चार कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इन कथा संग्रहों की की कुछ कहानियाँ- हिंदी, अंग्रेजी, असमिया, बांग्ला, बोडो आदि भाषाओं में अनूदित और प्रकाशित हो चुकी है। हिंदी अनुवादक डॉ. कमला सांकृत्यायन, सुवास दीपक, खड़कराज गिरी, मैना थापा ‘आशा’ और पदम् छेत्री द्वारा ‘मैचाड़ राजबर’ कृति उनकी चयनित एवं प्रतिनिधि 11 भारतीय नेपाली कहानियों के हिंदी अनुवाद का संग्रह है। ‘मोड़ से मोड़ तक’ कहानी संग्रह (18 कहानी) में कहानीकार कार्कीढोली ने जीवन के विभिन्न आयामों का बेहद सूक्ष्मता से चित्रांकन किया है। वीरभद्र कार्कीढोली सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों के कहानीकार हैं उन्होंने सामाजिक यथार्थ की ज्वलंत समस्याओं को अपनी कहानियों में जोर-शोर से उठाया है, जिन्हें अमलीजामा पहनाया है कुशल संपादक डॉ० सुरेश सिंहल ने। इन्होंने अपनी गहरी मानवीय संवेदनाओं के द्वारा समाज के विभिन्न सत्यों, संघर्षो और जिजीविषा को अभिव्यक्ति दी है। अपने संपादन में समाज के निराले अनुभव, उनका दुख-सुख, यथार्थवाद, जीवन सच्चाईयों और विसंगतियों का सशक्त उद्घाटन कर कृति को श्रेष्ठता प्रदान की है। कहानियों के विषयगत डॉ० सिंहल का मूल्यांकन तमाम बिंदुओं को छूते हुए मानव के अंतर्विरोधों तथा विकृतियों को दिखलाता है। लेखक की कहानियों के पात्र स्वतंत्र हैं, कथ्य रोचक तथा विषयवस्तु आकर्षक एवं मनमोहक है।
पुस्तक के संपादकीय में संपादक डॉ. सुरेश सिंहल लिखते हैं, “कार्कीढोली की कहानियाँ सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के विरोधाभासी रंगों से, स्थितियों से, विसंगत परिदृश्यों के भीतर से उपजी हैं जिनमें नए व पुराने संस्कारों और मानसिकता की काफी गहरी पैठ है। लेखक पात्रों, स्थितियों तथा दृश्यों के कंट्रास्ट के माध्यम से जीर्ण-शीर्ण संस्कारों का त्याग करते हुए नए जीवन व मूल्यों को साथ लेकर बदलाव को पाठक के सामने लाने का निरंतर प्रयास करता हुआ दिखाई देता है। वह अपनी कहानियों में व्यक्ति और सामाजिक संस्कारों, मूल्यों तथा परंपराओं के बीच की टकराहट को कथ्य एवं शिल्प की बुनावट के द्वारा ऐसा जीवंत चित्रण करता है कि उसके भीतर का सच, आकांक्षा, आक्रोश, संघर्ष और उसकी मानवीय संवेदनाएँ और सामाजिक सरोकार सहज ही जीवंत हो उठते हैं। इनकी कहानियों में सांस्कृतिक-सामाजिक परिवेश जितना व्यापक है मनोवृतिक चित्रण भी उतना ही सूक्ष्म है।”
कहानीकार कहता है- कहानी अब भी बाकी है, वह हाथ हिलाते हुए चली गई मोड़ से मोड़ तक, साबी और प्रिया, वह आदमी और मैं, गाँव तो गांव है, ठुले साइँला, जंतरे बाबू, रूपा, पड़ोसी, राधिका छोटा भाई, सरमान काका, मैचाड़ राजबर से होते हुए कमाने रत्नमान और अंत में दार्जिलिंग को याद कर विचरता है। जहाँ दम तोड़ती जीर्ण-शीर्ण बूढ़ी आशाएं, कवि की तरह भ्रमित और भयभीत हिमालय पहाड़, खिलखिलाते-मुरझाते फूल, कच्चे-पक्के फल, बर्फीली कंदराएं और ठंडी हवाएं, चाँद के उजियारे में छटता अंधेरा और गुनगुनाती धूप में चमचमाते दूब और चाय के बागानों के बीच आम आदमी की बची-खुची संभावनाओं में कहानियाँ ढूंढता कहानीकार तथा मचलते उसके समाधिस्थ अक्षर
छपने-छापने को व्याकुल हैं।
शब्दशिल्पी वीरभद्र कार्कीढोली के पास शब्दों का अकूत भंडार है। परख, पारखी और परखी की त्रिवेणी स्वरूपा कार्की ढोली प्राण-प्रतिष्ठापन और कुशाग्र-दृष्टि से उज्जवल उन्नायक हैं। कम शब्दों में सदैव बड़ी बात कहना और रचना रचने में सिद्धहस्त एवं प्रस्तोता मृदुभाषी कार्कीढोली जी नपी-तुली भाषा में ही अपने विचारों और भावों को कहने और समेटने में दक्ष हैं। मातृभाषा और आंचलिकता उनके रोम-रोम में बसी है, जिसके वे उपासक हैं। प्रयोगधर्मिता के नाम पर भाषा का संकरीकरण, लकीर के फकीर से हटकर सृजन, नव-नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के धनी ऊर्जावान साहित्यकार हैं।
विभिन्न भाषा-भाषी अनुवादकों ने उनके लेखन और चिंतन को भारतीय संस्कृति से जोड़ा है। कविताओं में काव्यशास्त्रीय तत्त्व निहित हैं, जो कभी बिंबों और प्रतीकों के रूप में तो कभी अलंकारों के रूप में प्रस्तुत होते हैं। उनका कवि-रूप और गद्यकार-रूप में शब्दों के चयन और गढ़ंत में विशेष प्रभावी हैं। चूंकि इन शब्दों में सामान्य अर्थ के साथ-साथ कुछ विशिष्ट अर्थ-छवियां भी संश्लिष्ट रूप में विद्यमान रहती हैं। यथा- ठूलीकांछी- छह बेटियों में पांचवी, बिनायो-मुर्चुंगा- विशेष प्रकार का वाद्ययंत्र ,माघेमेला- माघ माह का मेला, माघे संक्रांति- माघ माह की संक्रांति, माइला- दूसरा, दो नंबर का, ठूली- सबसे बड़ी, पहली नम्बर, काइँला- चौथा, पांच में चौथे नम्बर का, झाँकी- देशी दवा-दारू करने वाला, झाड़-फूंक करने वाला, हिटी-धारा- प्राकृतिक जलस्रोतडाँड़ा-दोकान- पहाड़ की दुकान, सुनाखरी- पहाड़ी फूल, कमाने-कमान- चाय बागान, गाछ- चाय के पौधे, मरदों- चाय बागान में काम करने वाले पुरुष कर्मी, देवराली- पत्थर (जिसे ईश्वर के रूप में पूजा-अर्चना की जाती है), दाम्लो- पीठ पर लदे बोझे के सहारे के लिए बँधी डोरी का मस्तक का चपटा भाग,जाँड़- चावल से बनाई गई शराब, रस्सी- शराब, बांडा- सोने-चाँदी का काम करने वाला व्यक्ति आदि-आदि आँचलिक शब्दों के लिए हिंदी शब्द-चयन अनुवादक के लिए चुनौतिपूर्ण हैं।
निष्कर्षतः वीरभद्र कार्कीढोली के पद्य, गद्य और अनूदित साहित्य पर अनेकाधिक साहित्य मनीषियों, चिन्तकों, अनुवादकों ने अपने विचार प्रस्तुत कर उनके भावलोक, विचारलोक और भद्रता तथा अनुवाद-कर्म का अभूतपूर्व दर्शन कराने का सद्कर्म किया है, जिसमें अंश मात्र आहुति मेरी भी समर्पित है। प्रो. राम आह्लाद चौधरी कवि के ‘वीरत्व का भावलोक’रचते हैं, श्यामल भट्टाचार्य जी कहतें कि कवि वीरभद्र ‘शब्दों के मोह से अवश नहीं होते’, रविकांत नीरज का यह कहना कि ‘जिंदगी को छोड़कर कोई कविता नहीं है’ कवि की बात को सार्थकता प्रदान करती है। वेदप्रकाश भारद्वाज ने वीरभद्र की मुट्ठीभर कविताओं में आग का शैलाब देखा है, चंद्रभानु प्रसाद ने कवि की जीवन जीने की ललक को चरितार्थ किया है तो डॉ. कमला सांस्कृत्यायन कहता है कवि अपना ही दर्द पीकर जीने की पीड़ा को उकेरता है। डॉ. विवेक मिश्र ने ‘अनुत्तरित प्रश्नों की प्रतिध्वनि’, हरिसुमन विष्ट ने कहा ‘जीवन का भोगा यथार्थ, दर्शन और अनुभव’ की बानगी, डॉ. हरेराम पाठक ने ‘समाज के प्रति आक्रोश भरा दर्द’ तथा अन्य मनिषयों में अजीत श्रीवास्तव, रूखसाना सिद्दीकी, मीना नकवी, ओम राज़, डॉ. रामसजन पांडेय, डॉ. साधना गुप्ता, रविशंकर उपाध्याय, मायाप्रकाश, रामचंद्र माली, संतोष बंसल आदि ने सारगर्भित एवं उपादेय समीक्षा-कर्म कर, वीरभद्र कार्कीढोली के समग्र साहित्यिक अवदान को शीर्षता प्रदान की, तो कुछ विद्वान संपादकों; यथा- डॉ. सुरेश सिंहल, खड़कराज गिरी आदि ने इनकी रचनाओं का संपादन एवं अनुवाद-कर्म कर श्रेष्ठता प्रदान की है।
डॉ० अशोक कुमार ‘मंगलेश’
साहित्यालोचक एवं अनुवादविद
अध्यक्ष, निर्मला स्मृति साहित्यिक समिति एवं निर्मला प्रकाशन
चरखी दादरी, हरियाणा, मो. 8199929206, ईमेल: nirmalaprakashanckd@gmail.com in
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